एक भी आँसू न ढलके
डबडबाया मन न छलके
शोक चेहरे पर न झलके
ये न मातम की घड़ी है
मौत अचरज में पड़ी है
समर मंथन में उँडेला
अमृत अपने तन कलश का
बिना झिझके मुस्कुराकर
चुटकियों में ख़ुद उठाकर
ये तुम्हारी बेनियाज़ी
देवताओं को पुराणों की
कथाओं को लजाए
ज़िंदगी को हारकर भी
मौत को तुम जीत लाए
प्राण हैं किसको न प्यार
सभी अपने ही लिए,
जीते सदा से
किंतु दूजों के लिए,
तुमने अपने प्राण वारे
इस तरह सिखला गए दिखला गए
जीना उन्हें भी
मृत्यु के आतंक से जो जी नहीं पाते कभी भी
जब हमारी सरहदों पर दाँत फाड़े
प्राणभक्षी युद्ध का दानव खड़ा था
फैलती दहशत भरी परछाइयों में
सभी का जीवन दबा सहमा पड़ा था
जब लपट में बच न पाया घर हमारा
वीर, तब तुम भिड़ गये पाकर इशारा
वज्र बनकर युद्ध की संभावना के नख उखाड़े
रक्त लोलुप जीभ पर तुमने उसी के दाँत गाड़े।।।
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