सुर्ख सफेद जमीन ही दिखती है
नदी नालों का कोई आयाम नहीं
पेड़ों की डालों पर भी सफेदी है
हरे पत्तों की कोई बिसात नहीं।
इसी सैफ बर्फ़ के साथ रहना है
इसका मर्ज भी कोई और नहीं
अनजाने रास्तों पर चलना है
इस मंज़र पर कोई रास्ता, रास्ता नहीं।
बंकर की छत पर पड़ी जो है
जिंदगी से कुछ कमतर नहीं
उबाल कर गर्मजोशी से पीना है
इक कतरा भी नुकसान नहीं।
चलते पांव धंसे भी हैं
पर ये बेड़ियाँ तो नहीं
सांसे जो भाप बन खो जाती हैं
जिंदा होने का अकेला इश्तेहार नहीं।
सफेद चादर आज नयी फिर छायी है
शिकन मगर दिखती एक भी नहीं
ये जिंदगी हिन्दुस्तानी फौजी की है
पिघलती बर्फ के पानी की नहीं।
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